Sunday 25 August 2013

तांत्रोक्त श्री गुरु कवचम् (Tantrokta Shree Guru Kavacham)

तांत्रोक्त श्री गुरु कवचम् 
(Tantrokta Shree Guru Kavacham)
इस तांत्रोक्त गुरु कवच की उपासना सर्वप्रथम स्वयम परम ब्रह्म ने की थी। इस कवच मे गुरु स्वरूप में स्वयम श्री आदि शिव ही स्थापित हैं। इसे स्वयम श्रीशिव ने माँ भवानी के कहने पर उन्हे बताया था। यह कवच अति दुर्लभ श्री विश्वसार तन्त्र के ऊर्ध्वाम्नाय खण्ड में उद्धृत है। और मेरी अत्यंत अनुभूत है। इसके फलश्रुति खण्ड में भगवान शिव जगदम्बा भवानी से कहते हैं कि – 
“ हे देवि यह गुरु कवच ब्रह्म लोक में भी अति दुर्लभ है और मात्र आपसे अत्यधिक स्नेह के कारण इसे मैंने कहा है किसी और से नहीं। जो इसका पूजा काल और विशेषतः जप काल में पाठ करते हैं उन्हें भुक्ति और मुक्ति की प्राप्ति होती है, सर्व मंत्रों के जप का फल, सर्व यंत्रों के अर्चन का फल और सर्व तीर्थों के भ्रमण व सेवन का फल प्राप्त होता है। भोजपत्र में अष्टगन्ध( आप केशर या गोरोचन या लालचन्दन या तीनों के मिश्रण का भी उपयोग कर सकते हैं) के द्वारा चक्र(तांत्रोक्त गुरु यंत्र) को लिख कर तथा कवच को भी लिख कर प्राण प्रतिष्ठा कर पूजन कर मिश्री युक्त गौ दुग्ध से गुरु मण्डल का गुरु मन्त्र द्वारा शुद्ध होकर जो साधक तर्पण करता है और फिर उसे किसी गुटिका (चाँदी या त्रिलौह के तावीज) में रख कर धारण करता है, वह सर्व प्रकार के भूतादिकों के भयों से मुक्त हो जाता है। जो त्रिकाल कवच पाठ करता है वह भव बन्धनों से मुक्त हो जाता है।”

तांत्रोक्त श्री गुरु कवचम्
विनियोगः ॐ नमोऽस्य श्रीगुरुकवच नाम मंत्रस्य श्री परम ब्रह्म ऋषिः, सर्व वेदानुज्ञो देव देवो श्रीआदि शिवः देवता, नमो हसौं हंसः हसक्षमलवरयूं सोऽहं हंसः बीजं, सहक्षमलवरयीं शक्तिः, हंसः सोऽहं कीलकं, समस्त श्रीगुरुमण्डल प्रीति द्वारा मम सम्पूर्ण रक्षणार्थे, स्वकृतेन आत्म मंत्रयंत्रतंत्र रक्षणार्थे च पारायणे विनियोगः।
ऋष्यादिन्यासः 
श्री परम ब्रह्म ऋषये नमः शिरसि। 
अनुष्टुप छंदसे नमः मुखे। 
सर्व वेदानुज्ञ देव देवो श्रीआदि शिवः देवतायै नमः ह्रदि। 
नमः हसौं हंसः हसक्षमलवरयूं सोऽहं हंसः बीजाय नमः गुह्ये। 
सहक्षमलवरयीं शक्तये नमः नाभौ।
हंसः सोऽहं कीलकाय नमः पादयोः। 
समस्त श्रीगुरुमण्डल प्रीति द्वारा मम सम्पूर्ण रक्षणार्थे, स्वकृतेन आत्म मंत्रयंत्रतंत्र रक्षणार्थे च पारायणे विनियोगाय नमः अंजलौ।
करन्यासः 
हसां अंगुष्ठाभ्यां नमः।
हसीं तर्जनीभ्यां नमः।
हसूं मध्यमाभ्यां नमः।
हसैं अनामिकाभ्यां नमः।
हसौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः।
हसः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।
ह्रदयादिन्यासः
हसां ह्रदयाय नमः।
हसीं शिरसे स्वाहा।
हसूं शिखायै वषट्।
हसैं कवचाय हुं।
हसौं नेत्रत्रयाय वौषट्।
हसः अस्त्राय फट्।
ध्यानम्ः
श्री सिद्ध मानव मुखा गुरवः स्वरूपं संसार दाह शमनं व्दिभुजं त्रिनेत्रं ।
वामांगं शक्ति सकलाभरणैर्विभूषं ध्यायेज्जपेत् सकल सिद्धि फल प्रदं च ॥
मूल कवचम्ः
ॐ नमः प्रकाशानन्दनाथः तु शिखायां पातु मे सदा ।
परशिवानन्द नाथः शिरो मे रक्षयेत् सदा ॥१॥
परशक्तिदिव्यानन्द नाथो भाले च रक्षतु ।
कामेश्वरानन्द नाथो मुखं रक्षतु सर्व धृक् ॥२॥
दिव्यौघो मस्तकं देवि पातु सर्व शिरः सदा ।
कण्ठादि नाभि पर्यन्तं सिद्धौघा गुरवः प्रिये ॥३॥
भोगानन्द नाथ गुरुः पातु दक्षिण बाहुकम् ।
समयानन्द नाथश्च सन्ततं ह्रदयेऽवतु ॥४॥
सहजानन्द नाथश्च कटिं नाभिं च रक्षतु ।
एष स्थानेषु सिद्धौघाः रक्षन्तु गुरवः सदा ॥५॥
अधरे मानवौघाश्च गुरवः कुल नायिके ।
गगनानन्द नाथश्च गुल्फयोः पातु सर्वदा ॥६॥
नीलौघानन्द नाथश्च रक्षयेत् पाद् पृष्ठतः ।
स्वात्मानन्द नाथ गुरुः पादांगुलीश्च रक्षतु ॥७॥
कन्दोलानन्द नाथश्च रक्षेत् पाद् तले सदा ।
इत्येवं मानवौघाश्च न्येसन्नाभ्यादि पादयोः ॥८॥
गुरुर्मे रक्षयेदुर्व्या सलिले परमो गुरुः ।
परापर गुरुर्वह्नौ रक्षयेत् शिव वल्लभे ॥९॥
परमेष्ठी गुरुश्चैव रक्षयेत् वायु मण्डले ।
शिवादि गुरवः साक्षात् आकाशे रक्षयेत् सदा ॥१०॥
इन्द्रो गुरुः पातु पूर्वे आग्नेयां गुरुरग्नयः ।
दक्षे यमो गुरुः पातु नैॠत्यां निॠतिगुरुः ॥११॥
वरुणो गुरुः पश्चिमे वायव्यां मारुतो गुरुः ।
उत्तरे धनदः पातु ऐशान्यां ईश्वरो गुरुः ॥१२॥
ऊर्ध्वं पातु गुरुर्ब्रह्मा अनन्तो गुरुरप्यधः ।
एवं दश दिशः पान्तु इन्द्रादि गुरवः क्रमात् ॥१३॥
शिरसः पाद पर्यन्तं पान्तु दिव्यौघ सिद्धयः ।
मानवौघाश्च गुरवो व्यापकं पान्तु सर्वदा ॥१४॥
सर्वत्र गुरु रूपेण संरक्षेत् साधकोत्तमः ।
आत्मानं गुरु रूपं च ध्यायेन मंत्रं सदा बुधः ॥१५॥
फलश्रुतिः
इत्येवं गुरु कवचं ब्रह्म लोकेऽपि दुर्लभम् ।
तव प्रीत्या मयाऽख्यातं न कस्य कथितं प्रिये ॥
पूजा काले पठेद् यस्तु जप काले विशेषतः ।
त्रैलोक्य दुर्लभम् देवि भुक्ति मुक्ति फलप्रदम् ॥
सर्व मन्त्र फलं तस्य सर्व यन्त्र फलं तथा ।
सर्व तीर्थ फलं देवि यः पठेत् कवचं गुरोः ॥
अष्टगन्धेन् भूर्जे च लिख्यते चक्र संयुतम् ।
कवचं गुरु पंक्तेस्तु भक्त्या च शुभ वासरे ॥
पूजयेत् धूप दीपाद्यैः सुधाभिः सित संयुतैः ।
तर्पयेत् गुरु मन्त्रेण साधकः शुद्ध चेतसा ॥
धारयेत् कवचं देवि इह भूत भयापहम् ।
पठेन्मन्त्री त्रिकालं हि स मुक्तो भव बन्धनात् ॥
एवं कवचं परमं दिव्य सिद्धौघ कलावान ।
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्री सदगुरुः ब्रह्मार्पणमस्तु ॥
पाठ विधिः
१००० पाठ का संकल्प लें। गुरु पूजन व गणेश पूजन कर पाठ आरम्भ करें। पहले पाठ में मूल कवच और फलश्रुति दोनों का पाठ करें। बीच के पाठों में मात्र मूल कवच का पाठ करें। और अंतिम पाठ में पुनः मूल कवच और फलश्रुति दोनों का पाठ करें। आप १००० पाठ को ५ या ११ या २१ दिनों में सम्पन्न कर सकते हैं। इस तरह इस सम्पूर्ण प्रक्रम को आप ५ बार करें। तो कुल ५००० पाठ सम्पन्न हो जायेंगे।
प्रयोग विधिः
नित्य किसी भी पूजन या साधना को करने से पूर्व और अन्त में आप कवच का ५ बार पाठ करें। रोगयुक्त अवस्था में या यात्राकाल में स्तोत्र को मानसिक रूप से भावना पूर्वक स्मरण कर लें।
इसी तरह यदि आप श्मशान में किसी साधना को कर रहें हों तो एक लोहे की छ्ड़ को कवच से २१ बार अभिमंत्रित कर अपने चारों ओर घेरा बना लें। और साधना से पूर्व व अन्त में कवच का ५-५ बार पाठ कर लें। जब कवच सिद्धि की साधना कर रहे हो उस समय एक लोहे की छ्ड़ को भी गुरु चित्र या यंत्र के सामने रख सकते हैं। और बाद में उपरोक्त विधि से प्रयोग कर सकते हैं।

सदगुरुदेव भगवान श्री निखिलेश्वरानंद से सबके लिए कल्याण कामना करता हूं।
॥ श्री गुरुचरणार्पणमस्तु ॥
॥ क्षमस्व परमेश्वरः ॥

6 comments:

  1. 13 14 मन्त्र मे पान्तु ही आयेगा या पातु आयेगा

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  2. पान्तु आएगा या पातु आएगा

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