Sunday 25 August 2013

तांत्रोक्त श्री गुरु कवचम् (Tantrokta Shree Guru Kavacham)

तांत्रोक्त श्री गुरु कवचम् 
(Tantrokta Shree Guru Kavacham)
इस तांत्रोक्त गुरु कवच की उपासना सर्वप्रथम स्वयम परम ब्रह्म ने की थी। इस कवच मे गुरु स्वरूप में स्वयम श्री आदि शिव ही स्थापित हैं। इसे स्वयम श्रीशिव ने माँ भवानी के कहने पर उन्हे बताया था। यह कवच अति दुर्लभ श्री विश्वसार तन्त्र के ऊर्ध्वाम्नाय खण्ड में उद्धृत है। और मेरी अत्यंत अनुभूत है। इसके फलश्रुति खण्ड में भगवान शिव जगदम्बा भवानी से कहते हैं कि – 
“ हे देवि यह गुरु कवच ब्रह्म लोक में भी अति दुर्लभ है और मात्र आपसे अत्यधिक स्नेह के कारण इसे मैंने कहा है किसी और से नहीं। जो इसका पूजा काल और विशेषतः जप काल में पाठ करते हैं उन्हें भुक्ति और मुक्ति की प्राप्ति होती है, सर्व मंत्रों के जप का फल, सर्व यंत्रों के अर्चन का फल और सर्व तीर्थों के भ्रमण व सेवन का फल प्राप्त होता है। भोजपत्र में अष्टगन्ध( आप केशर या गोरोचन या लालचन्दन या तीनों के मिश्रण का भी उपयोग कर सकते हैं) के द्वारा चक्र(तांत्रोक्त गुरु यंत्र) को लिख कर तथा कवच को भी लिख कर प्राण प्रतिष्ठा कर पूजन कर मिश्री युक्त गौ दुग्ध से गुरु मण्डल का गुरु मन्त्र द्वारा शुद्ध होकर जो साधक तर्पण करता है और फिर उसे किसी गुटिका (चाँदी या त्रिलौह के तावीज) में रख कर धारण करता है, वह सर्व प्रकार के भूतादिकों के भयों से मुक्त हो जाता है। जो त्रिकाल कवच पाठ करता है वह भव बन्धनों से मुक्त हो जाता है।”

तांत्रोक्त श्री गुरु कवचम्
विनियोगः ॐ नमोऽस्य श्रीगुरुकवच नाम मंत्रस्य श्री परम ब्रह्म ऋषिः, सर्व वेदानुज्ञो देव देवो श्रीआदि शिवः देवता, नमो हसौं हंसः हसक्षमलवरयूं सोऽहं हंसः बीजं, सहक्षमलवरयीं शक्तिः, हंसः सोऽहं कीलकं, समस्त श्रीगुरुमण्डल प्रीति द्वारा मम सम्पूर्ण रक्षणार्थे, स्वकृतेन आत्म मंत्रयंत्रतंत्र रक्षणार्थे च पारायणे विनियोगः।
ऋष्यादिन्यासः 
श्री परम ब्रह्म ऋषये नमः शिरसि। 
अनुष्टुप छंदसे नमः मुखे। 
सर्व वेदानुज्ञ देव देवो श्रीआदि शिवः देवतायै नमः ह्रदि। 
नमः हसौं हंसः हसक्षमलवरयूं सोऽहं हंसः बीजाय नमः गुह्ये। 
सहक्षमलवरयीं शक्तये नमः नाभौ।
हंसः सोऽहं कीलकाय नमः पादयोः। 
समस्त श्रीगुरुमण्डल प्रीति द्वारा मम सम्पूर्ण रक्षणार्थे, स्वकृतेन आत्म मंत्रयंत्रतंत्र रक्षणार्थे च पारायणे विनियोगाय नमः अंजलौ।
करन्यासः 
हसां अंगुष्ठाभ्यां नमः।
हसीं तर्जनीभ्यां नमः।
हसूं मध्यमाभ्यां नमः।
हसैं अनामिकाभ्यां नमः।
हसौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः।
हसः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।
ह्रदयादिन्यासः
हसां ह्रदयाय नमः।
हसीं शिरसे स्वाहा।
हसूं शिखायै वषट्।
हसैं कवचाय हुं।
हसौं नेत्रत्रयाय वौषट्।
हसः अस्त्राय फट्।
ध्यानम्ः
श्री सिद्ध मानव मुखा गुरवः स्वरूपं संसार दाह शमनं व्दिभुजं त्रिनेत्रं ।
वामांगं शक्ति सकलाभरणैर्विभूषं ध्यायेज्जपेत् सकल सिद्धि फल प्रदं च ॥
मूल कवचम्ः
ॐ नमः प्रकाशानन्दनाथः तु शिखायां पातु मे सदा ।
परशिवानन्द नाथः शिरो मे रक्षयेत् सदा ॥१॥
परशक्तिदिव्यानन्द नाथो भाले च रक्षतु ।
कामेश्वरानन्द नाथो मुखं रक्षतु सर्व धृक् ॥२॥
दिव्यौघो मस्तकं देवि पातु सर्व शिरः सदा ।
कण्ठादि नाभि पर्यन्तं सिद्धौघा गुरवः प्रिये ॥३॥
भोगानन्द नाथ गुरुः पातु दक्षिण बाहुकम् ।
समयानन्द नाथश्च सन्ततं ह्रदयेऽवतु ॥४॥
सहजानन्द नाथश्च कटिं नाभिं च रक्षतु ।
एष स्थानेषु सिद्धौघाः रक्षन्तु गुरवः सदा ॥५॥
अधरे मानवौघाश्च गुरवः कुल नायिके ।
गगनानन्द नाथश्च गुल्फयोः पातु सर्वदा ॥६॥
नीलौघानन्द नाथश्च रक्षयेत् पाद् पृष्ठतः ।
स्वात्मानन्द नाथ गुरुः पादांगुलीश्च रक्षतु ॥७॥
कन्दोलानन्द नाथश्च रक्षेत् पाद् तले सदा ।
इत्येवं मानवौघाश्च न्येसन्नाभ्यादि पादयोः ॥८॥
गुरुर्मे रक्षयेदुर्व्या सलिले परमो गुरुः ।
परापर गुरुर्वह्नौ रक्षयेत् शिव वल्लभे ॥९॥
परमेष्ठी गुरुश्चैव रक्षयेत् वायु मण्डले ।
शिवादि गुरवः साक्षात् आकाशे रक्षयेत् सदा ॥१०॥
इन्द्रो गुरुः पातु पूर्वे आग्नेयां गुरुरग्नयः ।
दक्षे यमो गुरुः पातु नैॠत्यां निॠतिगुरुः ॥११॥
वरुणो गुरुः पश्चिमे वायव्यां मारुतो गुरुः ।
उत्तरे धनदः पातु ऐशान्यां ईश्वरो गुरुः ॥१२॥
ऊर्ध्वं पातु गुरुर्ब्रह्मा अनन्तो गुरुरप्यधः ।
एवं दश दिशः पान्तु इन्द्रादि गुरवः क्रमात् ॥१३॥
शिरसः पाद पर्यन्तं पान्तु दिव्यौघ सिद्धयः ।
मानवौघाश्च गुरवो व्यापकं पान्तु सर्वदा ॥१४॥
सर्वत्र गुरु रूपेण संरक्षेत् साधकोत्तमः ।
आत्मानं गुरु रूपं च ध्यायेन मंत्रं सदा बुधः ॥१५॥
फलश्रुतिः
इत्येवं गुरु कवचं ब्रह्म लोकेऽपि दुर्लभम् ।
तव प्रीत्या मयाऽख्यातं न कस्य कथितं प्रिये ॥
पूजा काले पठेद् यस्तु जप काले विशेषतः ।
त्रैलोक्य दुर्लभम् देवि भुक्ति मुक्ति फलप्रदम् ॥
सर्व मन्त्र फलं तस्य सर्व यन्त्र फलं तथा ।
सर्व तीर्थ फलं देवि यः पठेत् कवचं गुरोः ॥
अष्टगन्धेन् भूर्जे च लिख्यते चक्र संयुतम् ।
कवचं गुरु पंक्तेस्तु भक्त्या च शुभ वासरे ॥
पूजयेत् धूप दीपाद्यैः सुधाभिः सित संयुतैः ।
तर्पयेत् गुरु मन्त्रेण साधकः शुद्ध चेतसा ॥
धारयेत् कवचं देवि इह भूत भयापहम् ।
पठेन्मन्त्री त्रिकालं हि स मुक्तो भव बन्धनात् ॥
एवं कवचं परमं दिव्य सिद्धौघ कलावान ।
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्री सदगुरुः ब्रह्मार्पणमस्तु ॥
पाठ विधिः
१००० पाठ का संकल्प लें। गुरु पूजन व गणेश पूजन कर पाठ आरम्भ करें। पहले पाठ में मूल कवच और फलश्रुति दोनों का पाठ करें। बीच के पाठों में मात्र मूल कवच का पाठ करें। और अंतिम पाठ में पुनः मूल कवच और फलश्रुति दोनों का पाठ करें। आप १००० पाठ को ५ या ११ या २१ दिनों में सम्पन्न कर सकते हैं। इस तरह इस सम्पूर्ण प्रक्रम को आप ५ बार करें। तो कुल ५००० पाठ सम्पन्न हो जायेंगे।
प्रयोग विधिः
नित्य किसी भी पूजन या साधना को करने से पूर्व और अन्त में आप कवच का ५ बार पाठ करें। रोगयुक्त अवस्था में या यात्राकाल में स्तोत्र को मानसिक रूप से भावना पूर्वक स्मरण कर लें।
इसी तरह यदि आप श्मशान में किसी साधना को कर रहें हों तो एक लोहे की छ्ड़ को कवच से २१ बार अभिमंत्रित कर अपने चारों ओर घेरा बना लें। और साधना से पूर्व व अन्त में कवच का ५-५ बार पाठ कर लें। जब कवच सिद्धि की साधना कर रहे हो उस समय एक लोहे की छ्ड़ को भी गुरु चित्र या यंत्र के सामने रख सकते हैं। और बाद में उपरोक्त विधि से प्रयोग कर सकते हैं।

सदगुरुदेव भगवान श्री निखिलेश्वरानंद से सबके लिए कल्याण कामना करता हूं।
॥ श्री गुरुचरणार्पणमस्तु ॥
॥ क्षमस्व परमेश्वरः ॥

Saturday 24 August 2013

Shree Nikhileshwaranada Kavacham श्री निखिलेश्वरानंद कवचं

आत्म रक्षा व साधनात्मक शक्ति रक्षा

जैसे ही कोई व्यक्ति पुलिस मे भर्ती होता है, इसकी खबर चोरों, लुटेरों आदि असामाजिक तत्वों को शीघ्र हो जाती है। और वो सभी उस पर कड़ी नजर रखने लगते हैं कि जैसे ये पुलिस हमारे विरुद्ध कोई कार्यवाई करता है तो किस तरह उसे रास्ते से हटाया जा सके, मारा जा सके।
यही बात आध्यात्मिक जगत में भी लागू होती है। जब कोई जातक दीक्षित होता है या साधनात्मक मार्ग पर चलता है तो सभी की सभी नकारात्मक शक्तियाँ, अहंकारी दुष्ट प्रवृत्ति के साधक, सिद्ध, तान्त्रिक आदि भी ऐसे साधकों से ईर्ष्या एवम वैर भाव रखने लगते हैं। और मौका पाने पर ऐसे साधकों को परेशान करते हैं, उसके आस पास के वातावरण को प्रतिकूल करने के लिये उल्टे-सीधे प्रयोग करते हैं और तो और उनकी साधनात्मक ऊर्जा को चुराने की भी कोशिश करते हैं। ऐसा काम ज्यादातर  साधक के साथ क्रियाशील शक्तियाँ ही करती हैं। अधकचरे तान्त्रिकों के चक्कर में तो वो तब आता है जब वो निःस्वार्थ भाव से लोगों की मदद करता है या फिर विशुद्ध साधनात्मक वातावरण में प्रवेश करता है जैसे कि सन्यास जीवन में। और भी बहुत सारी स्थितियाँ हैं।
वैसे तो साधक के लिए गुरुमंत्र ही सर्वोपरि है। परन्तु साधनात्मक जीवन में बहुत सारे पहलुओं से आयामों से परिचित होना पड़ता है, उनका ज्ञान रखना पड़ता है। यहाँ तक कि साधक के आस पास स्वयं उसके परिवार आदि में भी ऐसे लोग होते हैं जो उसकी आध्यात्मिक ऊर्जा का अवशोषण कर लेते हैं। कभी-कभी उनके पूर्वज आदि भी ऐसा करते हैं। परन्तु इन सब बातों का पता एक सामान्य साधक को नहीं चलता। पूर्व जन्मों के कर्म दोष भी हो सकते हैं। गुरु भी हर एक तथ्य को आपको प्रत्यक्ष रूप से नहीं बता सकते क्योंकि शिविरों आदि में उन्हे अत्यधिक ऊर्जा लगानी पड़ती है, मेहनत करनी पड़ती है, स्वयं की भी साधना करनी पड़ती है। आखिर उनके भी तो गुरु हैं। इसलिए आपको अपने गुरु द्वारा रचित साहित्यों और अन्य आध्यात्मिक व साधनत्मक ग्रंथों का भी अध्ययन करना चाहिए। या फिर अपने वरिष्ठ गुरु भाईयों या साधकों की सहायता लेनी चाहिए।
खैर ये विषय तो इतना गहन और लम्बा है कि एक ग्रन्थ ही तैयार हो जाए। अब आते हैं मूल बिंदु पर। मैं यहाँ पर आध्यात्मिक रूप से कु्छ परम कवचों को दे रहा हूं। जिनका यदि आप उपयोग करते हैं तो न केवल आप पूर्ण रूपेण विपक्ष द्वारा किए जा रहे तंत्र मंत्रादिकों से सुरक्षित रहेंगे अपितु आप जो भी साधनात्मक शक्तियाँ अर्जित करते हैं वो भी पूर्ण रूपेण कवचित रहेगी। कोई भी उनका हरण नहीं कर पायेगा।
और एक महत्वपूर्ण बात वो यह है कि आप ये न सोचें कि मात्र निर्देशित संख्या में कवच या मंत्र पाठ कर लिया और हो गया आपको वो कवच सिद्ध। ऐसा नहीं होता। क्योंकि ये कलियुग है और आजकल का रहन-सहन, खान-पान, चिन्तन-मनन, कार्य-व्यापार आदि ऐसा हो गया है कि मनुष्य के न चाहते हुये भी कुछ ऐसे दुष्कर्म हो जाते हैं जिनका उन्हे खुद ही पता नहीं होता। अतः साधनात्मक ऊर्जा धीरे-धीरे क्षीण होती जाती है। क्योंकि आप समाज में रह कर साधना कर रहे हैं। कोई सन्यासी तो हैं नहीं कि २४ घंटे साधनात्मक चिन्तन ही हो। और न ही उन जैसा सधा हुआ सिद्ध शरीर जो किसी भी साधनात्मक शक्ति की ऊर्जा को एक ही बार में भलीभांति अपने आप में समाहित कर सके, पचा सके। अतः आप किसी भी साधना को करते हैं तो ये आवश्यक है कि आप मूल साधना को कम-से-कम ४-५ बार करें। और उसके बाद उसकी निरंतरता बनाये रखने के लिये नित्य कवच या मंत्र का कुछ मात्रा में पाठ या जप करें। विशेषतया कवच या स्तोत्र आदि की सिद्धि १००० पाठ से हो जाती है। और इस तरह ४-५ बार में कुल चार या पाँच हजार पाठ सम्पन्न हो जाते हैं। कुछ कवचों और स्तोत्रों में उनकी पाठ संख्या दी गयी होती है। इन सबके के बाद ही आप कवच या स्तोत्र में लिखे प्रयोग आदि को करने की पात्रता अर्जित करते हैं। नीचे मैं कुछ उच्च कोटि के कवचों को दे रहा हूं । इन कवचों के मध्यम से आप दुष्कर साधनाओं को भी सम्पन्न कर सकते हैं। श्मशान आदि की साधना में इनके द्वारा चक्र निर्माण और उसके बाद स्वयं के शरीर का कीलन जिससे कोई भी दुष्ट या नकारात्मक शक्तियाँ आपका अहित न कर पायें, आप कर सकते हैं।
यहाँ और आने वाले पोस्ट में निम्न कवच होंगे। आप किसी की भी साधना कर सकते हैं।
१. श्री निखिलेश्वरानंद कवच
२. तांत्रोक्त श्री गुरु कवच
३. श्री दत्तात्रेय वज्र पंजर कवच
१. श्री निखिलेश्वरानंद कवच
विनियोगः  ॐ अस्य श्री निखिलेश्वरानंद कवचस्य श्री मुद्गल ऋषिः, अनुष्टुप छंदः, श्री गुरुदेवो निखिलेश्वरानंद परमात्मा देवता, महोस्तवं रूपं च इति बीजम, प्रबुद्धम निर्नित्यम इति कीलकम, अथौ नेत्रं पूर्णं इति कवचम, श्री भगवत्पाद निखिलेश्वरानंद प्रीति द्वारा मम सम्पूर्ण रक्षणार्थे, स्वकृतेन आत्म मंत्रयंत्रतंत्र रक्षणार्थे च पारायणे विनियोगः।
ऋष्यादिन्यासः 
श्री मुद्गल ऋषये नमः शिरसि।  
अनुष्टुप छंदसे नमः मुखे।  
श्री गुरुदेवो निखिलेश्वरानंद परमात्मा देवतायै नमः ह्रदि।  
महोस्तवं रूपं च इति बीजाय नमः गुह्ये।  
प्रबुद्धम निर्नित्यम इति कीलकाय नमः पादयोः।  
अथौ नेत्रं पूर्णं इति कवचाय नमः सर्वांगे,
श्री भगवत्पाद निखिलेश्वरानंद प्रीति द्वारा मम सम्पूर्ण रक्षणार्थे, स्वकृतेन आत्म मंत्रयंत्रतंत्र रक्षणार्थे च पारायणे विनियोगाय नमः अंजलौ।
करन्यासः 
श्री सर्वात्मने निखिलेश्वराय अंगुष्ठाभ्यां नमः।
श्री मंत्रात्मने पूर्णेश्वराय तर्जनीभ्यां नमः।
श्री तंत्रात्मने वागीश्वराय मध्यमाभ्यां नमः।
श्री यंत्रात्मने योगीश्वराय अनामिकाभ्यां नमः।
श्री शिष्य प्राणात्मने कनिष्ठिकाभ्यां नमः।
श्री सच्चिदानंद प्रियाय करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।
ह्रदयादिन्यासः
श्रीं शेश्वरः ह्रदयाय नमः।
ह्रीं शेश्वरः शिरसे स्वाहा।
क्लीं शेश्वरः शिखायै वषट्।
तपसेश्वरः कवचाय हुं।
तापेशेश्वरः नेत्रत्रयाय वौषट्।
एकेश्वरः अस्त्राय फट्।
मूल कवचम्ः
शिरः सिद्धेश्वरः पातु ललाटं च परात्परः। 
नेत्रे निखिलेश्वरानंदः नासिका नरकान्तकः ॥१॥
कर्णौ कालात्मकः पातु मुखं मंत्रेश्वरस्तथा। 
कण्ठं रक्षतु वागीशः भुजौ च भुवनेश्वरः ॥२॥
स्कन्धौ कामेश्वरः पातु ह्र्दयं ब्रह्मवर्चसः। 
नाभिं नारायणो रक्षेत ऊरुं ऊर्जस्वलोऽपि वै ॥३॥
जानुनि सच्चिदानंदः पातु पादौ शिवात्मकः। 
गुह्यं लयात्मकः पायात् चित्तं चिन्तापहारकः ॥४॥
मदनेशः मनः पातु पृष्ठं पूर्णप्रदायकः। 
पूर्वं रक्षतु तंत्रेशः यंत्रेशः वारुणीं तथा ॥५॥
उत्तरं श्रीधरः रक्षेत दक्षिणं दक्षिणेश्वरः। 
पातालं पातु सर्वज्ञः ऊर्ध्वं में प्राणसंज्ञकः ॥६॥
कवचेनावृतो यस्तु यत्र कुत्रापि गच्छति। 
तत्र सर्वत्र लाभः स्यात् किंचिदत्र न संशयः ॥७॥
फलश्रुतिः
यं यं चिन्तयते काम तं तं प्राप्नोति निश्चितं। 
धनवान बलवान लोके जायते समुपासकः ॥८॥
ग्रह भूत पिशाचाश्च यक्ष गर्न्धव राक्षसाः। 
नश्यन्ति सर्व विघ्नानि दर्शनात् कवचेनावृतम् ॥९॥
य इदं कवचं पुण्यं प्रातः पठति नित्यशः। 
सिद्धाश्रमः पदारूढ़ः ब्रह्मभावेन भूयते ॥१०॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्री निखिल ब्रह्मार्पणमस्तु ॥
पाठ विधिः
१००० पाठ का संकल्प लें। गुरु पूजन व गणेश पूजन कर पाठ आरम्भ करें। पहले पाठ में मूल कवच और फलश्रुति दोनों का पाठ करें। बीच के पाठों में मात्र मूल कवच का पाठ करें। और अंतिम पाठ में पुनः मूल कवच और फलश्रुति दोनों का पाठ करें। आप १००० पाठ को ५ या ११ या २१ दिनों में सम्पन्न कर सकते हैं। इस तरह इस सम्पूर्ण प्रक्रम को आप ५ बार करें। तो कुल ५००० पाठ सम्पन्न हो जायेंगे।
प्रयोग विधिः
नित्य किसी भी पूजन या साधना को करने से पूर्व और अन्त में आप कवच का ५ बार पाठ करें। रोगयुक्त अवस्था में या यात्राकाल में स्तोत्र को मानसिक रूप से भावना पूर्वक स्मरण कर लें।
इसी तरह यदि आप श्मशान में किसी साधना को कर रहें हों तो एक लोहे की छ्ड़ को कवच से २१ बार अभिमंत्रित कर अपने चारों ओर घेरा बना लें। और साधना से पूर्व व अन्त में कवच का ५-५ बार पाठ कर लें। जब कवच सिद्धि की साधना कर रहे हो उस समय एक लोहे की छ्ड़ को भी गुरु चित्र या यंत्र के सामने रख सकते हैं। और बाद में उपरोक्त विधि से प्रयोग कर सकते हैं।

सदगुरुदेव भगवान श्री निखिलेश्वरानंद से सबके लिए कल्याण कामना करता हूं।
॥ श्री गुरुचरणार्पणमस्तु ॥
॥ क्षमस्व परमेश्वरः ॥


Wednesday 21 August 2013

प्रवेश ज्ञान-2

पूजनोपासना प्रकार
ब्रह्मर्षि नारद ने पूजा साधना के निम्न प्रकार बताये हैं-
१. अभाविनी साधनाः सामग्री आदि के अभाव मे मन अथवा जल से पूजन अभाविनी साधना कहलाती है।
२. दौर्बोधी साधनाः ज्ञानाभाव मे की गयी पूजा दौर्बोधी साधना कहलाती है।
३. सौतिकी साधनाः सकाम होने पर मानसी एवं निष्काम होने पर सर्व प्रकार से पूजन किया जा सकता है। यह सौतिकी साधना है।
४. आतुरी साधनाः रोगयुक्त होने पर पूजन आदि नही किया जाता। केवल सूर्य या देव दर्शन तथा मानसिक रूप से मूल मंत्र जप किया जाता है। रोग समाप्ति पश्चात शुद्ध होकर गुरु पूजन कर उनसे पूजा विच्छेद दोष निवारण हेतु प्रार्थना कर पूजन आरम्भ करना चाहिए।
५. त्रासी साधनाः जो व्यक्ति तत्काल उपलब्ध अथवा मानसोपचार से पूजन करता है उसे सर्व सिद्धि की प्राप्ति होती है। इसे त्रासी साधना कहते हैं जो समस्त पूजनों में सर्वोत्तम है और जिसे उच्च कोटि के साधक प्रयोग करते हैं।
विशेषः जो स्वयं पूजन आदि की सारी समग्री को एकत्र कर पूजन करता है उसे पूर्ण फल की प्राप्ति होती
है। अन्य व्यक्तियों के द्वारा एकत्रित होने पर पूर्ण फल नहीं मिलता।
शास्त्रों में ब्रह्मणों के लक्षण एवं साधकों के आवश्यक कृत्य
१. ब्राह्मण उसे नहीं कहते जो कि ब्राह्मण कुल में जन्म ले अपितु ब्राह्मण उसे कहते हैं जो त्रिकाल सन्ध्या करता है। उदाहरण के लिए आप ब्रह्म ऋषि विश्वामित्र को ले सकते हैं जो थे तो क्षत्रिय परन्तु गायत्री उपासना से उन्होने ब्रह्मर्षि पद को प्राप्त कर लिया।
२. ब्राह्मणों के लिए आवश्यक है कि वे नित्य त्रिकाल सन्ध्या वन्दन करें। सन्ध्या वन्दन मे सूर्य पूजन व गायत्री जप आते हैं।
३. प्रत्येक साधक को चाहिए कि वे ब्रह्म मुहूर्त में गुरु पूजन कर गुरु मन्त्र के पश्चात गायत्री मन्त्र जप करें और सूर्य को अर्घ्य दें। सम्भव हो तो तीनों कालों में करें।
४. जब किसी विशेष देव शक्ति की उपासना कर रहें हो तब उस देवशक्ति से सम्बन्धित गायत्री का जप भी मूल गायत्री मंत्र के बाद सन्ध्या में करें।
५. सन्धया वन्दन आप किसी कुएं, नदी, तालाब या फिर घर पर भी कर सकते हैं।
६. चाहे आप साधना कर रहे हों या नहीं, सन्ध्या वन्दन न त्यागें।
७. अशक्त होने पर या यात्रा काल में आप समस्त सन्ध्या को मानसिक रूप से कहीं पर भी बैठ कर सम्पन्न कर सकते हैं। इसमें कोई दोष नहीं होता।




प्रवेश ज्ञान—1

साधना जगत आदि में प्रवेश से पूर्व ये आवश्यक है ​कि आप दीक्षित हों। आप गुरु शरणं हों उन्हें धारण करें।

शास्त्रों में ऐसा निर्देश है कि बिना गुरु के परम ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। अत: साधकों के लिए ये परम आवश्यक है कि वे गुरु शरणं हों। आज ऐसे बहुत लोग हैं जो सदगुरुदेव निखिलेश्वरानंद से दीक्षा पाना चाहते हैं। परंतु अब तो वे अशरीरी हो चुके हैं। परंतु फिर भी शास्त्रों में कुछ ऐसे विधान हैं कि आप अशरीरी गुरु से भी दीक्षा प्राप्त कर सकते हैं। ऐसा भी विधान है कि यदि आप निर्णय अनिर्णय की स्थिति में है कि किनसे दीक्षा लें या न लें तब आप भगवान शिव को गुरु स्वीकार कर शास्त्रोक्त विधि द्वारा उनसे दीक्षा प्राप्त करें। या​ फिर आप किसी जीवित जाग्रत गुरु के पास, जो आपको उचित लगे, जागकर दीक्षा प्राप्त करें।

परंतु मेरे विचार में आज कल हर कोई दूसरा तीसरा तथाकथित सिद्ध अपने आप को गुरु महागुरु सिद्ध कर रहा है। यदि आप अपने मन में किसी को गुरु स्वरूप मानकर पूज रहे हैं उनका मंत्र जप आदि कर रहे हैं। तो वे कहते हैं कि इन सबसे कुछ नहीं होगा। आप पहले दीक्षा लें।

परंतु मैं आप को बता दूं। आज भी ऐसे कई स्थानों पर गोपनीय तौर पर कई साधक आदि हैं ​जो सदगुरुदेव निखिलेश्वरानंद को गुरु मान अपने आप में साधनारत हैं। उन्होंने उनसे कोई प्रत्यक्ष दीक्षा नहीं ली है। परंतु फिर भी उन साधकों को श्री सदगुरुदेव के साक्षात दर्शन होते हैं स्पष्ट निर्देश प्राप्त होते हैं। आप इसे क्या कहेंगे।

शास्त्रों में गुरु गीता में स्पष्ट रूप से ये लिखा हैं कि यदि आप को कोई गुरु प्राप्त न हों तो आप सीधे भगवान भोलेनाथ शिव को गुरु मान तंत्र क्षेत्र में साधना क्षेत्र में प्रविष्ट हो सकते हैं। आपको निश्चित ही उनका मार्गनिर्देशन प्राप्त होगा।

अब मैं आपको उस विधि को सरलतम रूप में देता हूं कि आप भी चाहें तो सदगुरुदेव निखिल या भगवान शिव या आप जिस भी अशरीरी गुरु से दीक्षा प्राप्त करना चाहते हैं, से दीक्षा प्राप्त कर सकें।

विधि:

किसी गुरुपुष्य नक्षत्र या रविपुष्य नक्षत्र या गुरु पूर्णिमा या कार्तिक पूर्णिमा की प्रात: काल में इस विधि को प्रारंभ करें।

निम्न सामग्रियों की आपको आवश्यकता पड़ेगी— गुरु चित्र या जिनसे आप दीक्षा चाहते हैं ​उनका चित्र, एक नई रुद्राक्ष की 54 या 32 दानों की माला जो कि प्राण प्रतिष्ठित हो(स्वयं धारण के लिए), 2 यज्ञोपवीत, एक सुंदर धोती कुर्ता गुरुदेव के लिए, फल, फूल, 2 नारियल, पीला चंदन, बैठने के लिए एक पीला कंबल या सूती आसन, सुपारी, अक्षत, एक हल्दी का गांठ, सिक्के, कर्पू्र, मौली, पान पत्ते, लौंग इलायची आदि।

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