Saturday 9 August 2014

Kundalini

कुण्डलिनी जागरण(धन्याष्टकम्)

यह स्तोत्र अत्यंत अनुभूत है। वास्तविक गुरु परम्परा में चलने वाले इस स्तोत्र का प्रयोग अमृत तत्व प्राप्ति एवं  कुण्ड्लिनी जागरण हेतु करते हैं।

पहले आप गुरु पूजन करें। एक माला गुरुमंत्र जप करें। भगवान गणपति को नमन करें। उसके बाद आप सीधे बैठकर अत्यंत उच्च स्वर में और अति तीव्रता के साथ  'हुं  (हुम)" बीज का उच्चारण करें। यह क्रिया तेजी के साथ होनी चाहिए। यह एक तरह से भस्त्रिका ही है परंतु बीज युक्त। यह क्रिया ५ मिनट तक करें। १-२ मिनट विश्राम लें।

अब सदगुरु चरण कमलों का अपने सहस्त्रार में इस प्रकार ध्यान करें कि उनसे अमृत धारा स्रावित हो रही है और आपक पूरा अन्तर और बाहरी देह उससे आप्लावित हो रहा है। और इस स्तोत्र के 11 या 21 या जितना पाठ आप कर सकें करें। इस साधना को ६ माह तक करें और होने वाली अनुभूतियों को देख कर इसे आगे जारी रख सकते हैं। यदि पहले आप इस स्तोत्र को कंठस्थ कर लेते हैं तो ध्यान करते हुए आप स्तोत्र का आसानी से पाठ कर सकेंगे। स्तोत्र के पूर्ण तल्लीनता और भक्ति पूर्वक पाठ करें। जल्दी जल्दी पाठ न करें। सुमधुर स्वर में धीरे धीरे पाठ करें। जितने ज्यादा धीरे करेंगे परिणाम उतनी जल्दी दृष्टिगोचर होगा ऐसा मेरा अनुभव रहा है। सदगुरु भगवान निखिल आप साधकों को अमृत तत्व प्रदान करें व आपकी कुण्ड्लिनी जाग्रत करें ऐसी ही उनके श्री चरणों में प्रार्थना करता हूँ।


धन्याष्टकम्:

तज्ज्ञानं प्रशमकरं यदिन्द्रियाणां
तज्ज्ञेयं यदुपनिष्त्सु निश्चितार्थम्।
ते धन्या भुवि परमार्थनिश्चितेहा:
शेषास्तु भ्रमनिलये परिभ्रमन्त:।।1।।

आदौ विजित्य विषयान्मदमोहराग
द्वेषादिशत्रुगणमाहृत योगराज्या:।
ज्ञात्वा मतं समनुभूयपरात्मविद्या
कान्तासुखं वनगृहे विचरन्ति धन्या:।।2।।

त्यक्त्वा गृहे रतिमधोगति हेतुभूताम्
आत्मेच्छेयोपनिषदर्थरसं पिबन्त:।
वीतस्पृहा विषयभोगपदे विरक्ता
धन्याश्चरन्ति विजनेषु विरक्तसंगा:।।3।।

त्यक्त्वा ममाहमिति बन्धकरे पदे
द्वे मानावमानसदृशा: समदर्शिनश्च।
कर्तारमन्यवगम्य तदर्पितानि कुर्वन्ति
कर्मपरिपाकफलानि धन्या:।।4।।

त्यक्त्वा ईषणात्रयमवेक्षितमोक्षमार्गा
भैक्षामृतेन परिकल्पितदेहयात्रा:।
ज्योति: परात्परतरं परमात्मसंज्ञं
धन्या द्विजार​हसि हृद्यवलोकयन्ति।।5।।

नासन्न सन्न सदसन्न महसन्नचाणु
न स्त्री पुमान्न च नपुंसकमेकबीजम्।
यैर्ब्रह्म तत्सममुपासितमेकचित्तै:
धन्या विरेजुरित्तरेभवपाशबद्धा:।।6।।

अज्ञानपंकपरिमग्नमपेतसारं
दु:खालयं मरणजन्मजरावसक्तम्।
संसारबन्धनमनित्यमवेक्ष्य धन्या
ज्ञानासिना तदवशीर्य विनिश्चयन्ति ।।7।।

शान्तैरनन्यमतिभिर्मधुरस्वभावै:
एकत्वनिश्चितमनोभिरपेतमोहै:।
साकं वनेषु विजितात्मपदस्वरूपं
तद्वस्तु सम्यगनिशं विमृशन्ति धन्या:।।8।।

ऊँ परमतत्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नम:।।
श्री सदगुरु ब्रह्मार्पणमस्तु।।
मम ब्रह्तत्वं देहि मम सर्व मलनाशं कुरु
मम आत्म ज्योतिं प्रदर्शय।

क्षमस्व निखिलेश्वर। क्षमस्व परमेश्वर:।


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